विष्णु पुराण – वर्षा ऋतू वर्णन

.. and the rainy season.

तब मेघ समूह से आकाश को आच्छादित करता हुआ तथा अतिशय वाराधारियों से दिशाओं को एक रूप करता हुआ वर्षाकाल आया। उस समय नवीन दूर्वा के बढ जाने और वीरबहूटियों से व्याप्त हो जाने से पृथ्वी पद्मरागविभूषिता मरकतमयी-सी जान पड़ने लगी।

जिस प्रकार नया धन पाकर दुष्ट पुरुषों का चित्त उच्छ्र्न्ख्ल हो जाता है उसी प्रकार नदियों का जल सब और अपना निर्दिष्ट मार्ग छोड़कर बहने लगा। जैसे मूर्ख मनुष्यों की ध्र्ष्टता पूर्ण उक्तियों से अच्छे वक्ता की वाणी भी मलिन पड़ जाती है वैसे ही मलिन मेघों से आच्छादित रहने के कारण निर्मल चन्द्रमा भी शोभाहीन हो गया।

जिस प्रकार विवेकहीन राजा के संग में गुणहीन मनुष्य भी प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेता है उसी प्रकार आकाश-मंडल में गुणरहित इन्द्र-धनुष स्थित हो गया। दुराचारी पुरूष में कुलीन पुरूष की निष्कपट शुभ चेष्टा के समान मेघमंडल में बगुलों की निर्मल पंक्ति सुशोभित होने लगी।

श्रेष्ठ पुरूष के साथ दुर्जन की मित्रता के समान अत्यन्त चंचला विद्युत आकाश में स्थिर न रह सकी। महामूर्ख मनुष्यों की अन्यार्थिका उक्तियों के समान मार्ग तृण और दूबसमूह से आच्छादित होकर अस्पष्ट हो गए।

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